संदेश
प्रियव्रत
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श्रीब्रह्माजीने कहा—बेटा! मैं तुमसे सत्य सिद्धान्तकी बात कहता हूँ, ध्यान देकर सुनो। तुम्हें अप्रमेय श्रीहरिके प्रति किसी प्रकारकी दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिये। तुम्हीं क्या—हम, महादेवजी, तुम्हारे पिता स्वायम्भुव मनु और तुम्हारे गुरु ये महर्षि नारद भी विवश होकर उन्हींकी आज्ञाका पालन करते हैं ।।११।। उनके विधानको कोई भी देहधारी न तो तप, विद्या, योगबल या बुद्धिबलसे, न अर्थ या धर्मकी शक्तिसे और न स्वयं या किसी दूसरेकी सहायतासे ही टाल सकता है ।।१२।। प्रियवर! उसी अव्यक्त ईश्वरके दिये हुए शरीरको सब जीव जन्म, मरण, शोक, मोह, भय और सुख-दुःखका भोग करने तथा कर्म करनेके लिये सदा धारण करते हैं ।।१३।। वत्स! जिस प्रकार रस्सीसे नथा हुआ पशु मनुष्योंका बोझ ढोता है, उसी प्रकार परमात्माकी वेदवाणीरूप बड़ी रस्सीमें सत्त्वादि गुण, सात्त्विक आदि कर्म और उनके ब्राह्मणादि वाक्योंकी मजबूत डोरीसे जकड़े हुए हम सब लोग उन्हींके इच्छानुसार कर्ममें लगे रहते हैं और उसके द्वारा उनकी पूजा करते रहते हैं ।।१४।। हमारे गुण और कर्मोंके अनुसार प्रभुने हमें जिस योनिमें डाल दिया है उसीको स्वीकार करके, वे जैस
नारद उपदेश प्रचेता वरदान
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श्रीनारदजीने कहा—राजाओ! इस लोकमें मनुष्यका वही जन्म, वही कर्म, वही आयु, वही मन और वही वाणी सफल है, जिसके द्वारा सर्वात्मा सर्वेश्वर श्रीहरिका सेवन किया जाता है ।।९।। जिनके द्वारा अपने स्वरूपका साक्षात्कार करानेवाले श्रीहरिको प्राप्त न किया जाय, उन माता-पिताकी पवित्रतासे, यज्ञोपवीत-संस्कारसे एवं यज्ञदीक्षासे प्राप्त होनेवाले उन तीन प्रकारके श्रेष्ठ जन्मोंसे, वेदोक्त कर्मोंसे, देवताओंके समान दीर्घ आयुसे, शास्त्रज्ञानसे, तपसे, वाणीकी चतुराईसे, अनेक प्रकारकी बातें याद रखनेकी शक्तिसे, तीव्र बुद्धिसे, बलसे, इन्द्रियोंकी पटुतासे, योगसे, सांख्य (आत्मानात्मविवेक)-से, संन्यास और वेदाध्ययनसे तथा व्रत-वैराग्यादि अन्य कल्याण-साधनोंसे भी पुरुषका क्या लाभ है? ।।१०-१२।। वास्तवमें समस्त कल्याणोंकी अवधि आत्मा ही है और आत्मज्ञान प्रदान करनेवाले श्रीहरि ही सम्पूर्ण प्राणियोंकी प्रिय आत्मा हैं ।।१३।। जिस प्रकार वृक्षकी जड़ सींचनेसे उसके तना, शाखा, उपशाखा आदि सभीका पोषण हो जाता है और जैसे भोजनद्वारा प्राणोंको तृप्त करनेसे समस्त इन्द्रियाँ पुष्ट होती हैं,उसी प्रकार श्रीभगवान्की पूजा ही सबक
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२५-पुरंजनोपाख्यानका प्रारम्भ २६-राजा पुरंजनका शिकार खेलने वनमें जाना और रानीका कुपित होना २७-पुरंजनपुरीपर चण्डवेगकी चढ़ाई तथा कालकन्याका चरित्र २८-पुरंजनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति और अविज्ञातके उपदेशसे उसका मुक्त होना २९-पुरंजनोपाख्यानका तात्पर्य ३०-प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्का वरदान वरदान ३१-प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश और उनका परमपद -लाभ पञ्चम स्कन्ध १- प्रियव्रत -चरित्र २- आग्नीध्र -चरित्र ३-राजा नाभि का चरित्र ४-ऋषभदेवजीका राज्यशासन ५-ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना और स्वयं अवधूतवृत्ति ग्रहण करना ६-ऋषभदेवजीका देहत्याग
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प्रभु! यह शरीर आपकी सेवा का साधन होकर जब आप के पथका अनुरागी हो जाता है, तब आत्मा, हितेषी, सुहृद और प्रिय व्यक्ति के समान आचरण करता है। आप जीव के सच्चे हितैषी,प्रियतम और आत्मा ही है और सदा सर्वदा जीव को अपनाने के लिए तैयार भी रहते हैं ।इतनी सुगमता होने पर तथा अनुकूल मानव शरीर को पाकर भी लोग सख्यभाव आदिके द्वारा आप की उपासना नहीं करते,आप में नहीं रमते, बल्कि इस विनाशी और असत शरीर का तथा उसके संबंधियोंमें ही रह जाते हैं,उनकी उपासना करने लगते हैं और इस प्रकार अपने आत्मा का हनन करते हैं, उसे अधोगति में पहुंचाते हैं। भला यह कितने कष्ट की बात है!इसका फल यह होता है कि उनकी सारी वृतिया, सारी वासनाए शरीर आदि में ही लग जाती है और फिर उनके अनुसार उनको पशु-पक्षी आदि के न जाने कितने बुरे बुरे शरीरग्रहण करने पड़ते हैं और इस प्रकार अत्यंत भयावह जन्म मृत्यु रूप संसार में भटकना पड़ता है। आप जगत के स्वामी है और अपनी आत्मा ही है। इस जीवन में ही मेरा मन आप में रम जाए। मेरे स्वामी! मेरा ऐसा सौभाग्य कब होगा,जब मुझे इस प्रकार का मनुष्य जन्म प्राप्त होगा?